एक्सेल इन्फोटेक के प्रमुख विश्वमोहन ने, आज जब अपने शानदार ऑफिस के ऊँचे और
भारी भरकम गेट के सामने, अपनी काले रंग की चमचमाती मर्सिडीज से नीचे कदम रखा,
तो उसे नजारा कुछ बदला-बदला सा नजर आया।
गेट वैसे ही पूरी भव्यता के साथ खड़ा था और नीले रंग की स्मार्ट यूनीफार्म
में, गार्ड अपनी चटक अदा के साथ, वैसे ही उसे खोलने के लिए तत्पर खड़ा था पर
गेट के बाएँ हाथ वाली बाउंड्री वाल से सटा ये गुमटी जैसा क्या था?
विश्वमोहन ने गौर से देखा। एक नीले रंग की गुमटी थी जिसकी खिड़की खुली थी और
जिसके पीछे, पैंट और लाल रंग की बिना बाँह वाली बनियान पहने, एक लड़का बैठा
था। बनियान ठीक वैसी ही थी जैसी 'अमूल माचो' वाले विज्ञापन में सैफ अली खान
पहनता है। उसके गले में काली डोरी से बँधा एक ताबीज पड़ा था जो उसके हर ठहाके
के साथ गले में कुछ इस तरह ऊपर नीचे हो रहा था जैसे वह खुद भी बतियाना चाहता
हो। खिड़की वाला लड़का, गुमटी के पीछे उठा पटक कर रहे एक छोकरे से, लगातार बात
कर रहा था और बीच-बीच में ठहाके भी लगाता जाता था।
विश्वमोहन को अपने ऑफिस से बिल्कुल सटी हुई गुमटी में, इस नई किस्म की गतिविधि
का मतलब समझ नहीं आया। उसने अपनी निगाह ऊँची की तो देखा, गुमटी पर एक साइन
बोर्ड लगा है जिस पर लिखा था - 'गरीब नवाज चिकन शॉप', जिसके शुरू में लाल रंग
की कलगी लगा मुर्गा शान से मुस्कुरा रहा था। विश्वमोहन को यह भी समझ नहीं आया
कि ये मुर्गा मुस्कुरा क्यों रहा है, क्या इसे अपना हश्र नहीं मालूम? या शायद
यह ये कहना चाह रहा है कि प्रत्येक मुर्गा कटने के पहले मुस्कुराता है। या ये,
कि देखो, मैं मरने से नहीं डरता, मैं हँसते-हँसते जान पर खेल जाऊँगा। बहरहाल
खुली हुई खिड़की के पास एक काले रंग का बोर्ड टँगा था जिस पर खड़िया से लिखा था
'ताजा चिकन 100 रुपये किलो', 'ड्रेस्ड चिकन 120 रुपये'।
तो क्या मुर्गा यहीं काटने की भी तैयारी है? विश्वमोहन ने थोड़ा और ध्यान से
देखा। गुमटी के पीछे कुछ अलंगों के ऊपर एक फर्शी रख दी गई थी और उसके पास ही
एक दो छोटी बड़ी छुरियाँ चमक रही थीं। वहीं पास में एक जाली वाले दड़बे में
कुछ मुर्गे-मुर्गियाँ बंद थे जो लगभग निष्प्राण थे और अपनी बारी के आने का
इंतजार कर रहे थे। आखिर उनके जीने का और मकसद भी क्या था?
विश्वमोहन का मन खराब हो गया। सुबह-सुबह ये क्या? किसने इजाजत दी इस 'गरीब
नवाज चिकन शॉप' को हमारे ऑफिस के ठीक बगल में खड़ा होने की? क्या ऐसे खुले में
चिकन काटा और बनाया जा सकता है? ये तो सरासर लोगों को आहत करने जैसा है। आखिर
सभी लोग तो नान वेजीटेरियन नहीं होते। जुर्रत तो देखिए, यहीं काटेंगे, यहीं
ड्रेसिंग करेंगे और यहीं ताजा चिकन 100 रुपये किलो बेचेंगे। मैं देखता हूँ
कैसे बेचते हैं! कोई मजाक है? हमारा ऑफिस टेक्नालाजी के क्षेत्र में काम करता
है, तमाम संभ्रांत लोग यहाँ आते-जाते हैं, इतना इन्वेस्टमेंट करके मैंने इसे
भव्य और सुंदर बनाया है। ठीक इसके पड़ोस में 'गरीब नवाज चिकन शॉप'! मैं भी
देखता हूँ...
विश्वमोहन की निगाहें गुमटी पर बैठे लड़के की निगाहों से मिलीं, उसने लापरवाही
के साथ अपना चेहरा दूसरी ओर घुमा लिया।
विश्वमोहन ने अपने ऑफिस के गेट में प्रवेश करते हुए गार्ड गंगाधर से कहा,
'गंगाधर, जरा ऊपर आना।'
गंगाधर ऊपर आया।
विश्वमोहन ने अपनी विशाल टेबल के पीछे रखी ऊँची कुर्सी पर बैठते हुए कहा,
'क्यों, तुमने ये गरीब नवाज की गुमटी नहीं देखी?'
'देखी है सर!'
'तो तुमने इसे यहाँ लगने कैसे दिया?'
'सर मैं जब सुबह ड्यूटी पर आया तो ये यहाँ रखी हुई थी। शायद रात में रखी गई
होगी। बाद में इन लोगों ने यहाँ बोर्ड वगैरह लगाया और मुर्गे-मुर्गियाँ भी रख
लीं।'
'तो तुम्हें मना करना चाहिए था।'
'सर मैंने मना किया था पर वे नहीं माने।'
'तुमने बताया नहीं कि साहब शिकायत करके तुम्हारी गुमटी उठवा देंगे। बेकार
नुकसान होगा।'
'कहा था सर।'
'तो क्या बोला?'
गंगाधर ने थोड़ा झिझकते हुए कहा -
'सर मैंने बहुत समझाया, पर वह बोला कि तुम्हारे साहब होंगे बड़े आदमी अपने घर
के। हमें भी तो अपना काम धंधा करना है!'
'अच्छा, एक बार फिर जाओ। इस बार अपने साथ गौतम सर को भी ले जाओ। वे उसे
प्रशासनिक तरीके से समझा देंगे।'
कमरे से बाहर निकलकर उन्होंने अपने प्रशासनिक अधिकारी गौतम से कहा -
'गौतम, जरा गंगाधर के साथ चले जाओ। उस गरीब नवाज से कहना कि वह शराफत से अपनी
गुमटी हटा ले नहीं तो हमें उसकी शिकायत करनी पड़ेगी।'
'जी सर।'
गौतम ने कहा और गंगाधर के साथ नीचे चला गया।
जब तक गौतम और गंगाधर वापस लौटते हैं तब तक हम विश्वमोहन के बारे में थोड़ा और
जान लेते हैं।
स्कूल के दिनों में विश्वमोहन की पहचान एक जहीन लड़के की थी। उसने आई.आई.टी.
की परीक्षा पास की और फिर सीधा वहाँ से अमेरिका चला गया। उसे एक बड़ी
मल्टीनेशनल कंपनी में नौकरी मिल गई थी। वहाँ उसने सफलता के झंडे गाड़े और
जल्दी ही वाइस प्रेसिडेंट के पद पर पदोन्नत हुआ। वह अक्सर भारत आया करता था
जहाँ उसे बौद्धिक संपदा की तरह देखा जाता और उसे वैसा ही सम्मान भी मिलता था।
वह कई महत्वपूर्ण परियोजनाओं से जुड़ा था और दोस्तों, रिश्तेदारों तथा
सहयोगियों के बीच सफल आदमी के रूप में जाना जाता था। वह देश-विदेश में घूमता,
बड़े-बड़े प्लान बनाता, प्रोजेक्ट संचालित करता और कार्पोरेट वर्ल्ड में
आवाजाही बनाए रखता। दोस्त उसे प्यार से विशी कहते थे।
क्योंकि वह जहीन था, इसलिए करीब दस वर्ष अमेरिका में रहने के बाद उसे समझ में
आ गया कि वह कहीं जा नहीं रहा था। वह पेड़ की उन शाखाओं की तरह था जो हवा में
हिलती रहती थीं पर जिनका तना और जड़ें सिरे से गायब थीं। करीब पैंतीस-चालीस की
उम्र के बीच उसे फिर से अपनी जड़ों की तलाश करने की जरूरत महसूस होने लगी। इधर
उसकी पत्नी भारती भी अमेरिका से ऊब चली थी और 'चलो इंडिया चलते हैं' की जिद
लगाए रखती थी। उनका बेटा रोहित अब छह-सात साल का हो चला था और उन्हें लगता था
कि अपने देश में रहकर ही वह संस्कारवान बन सकता है। पर सबसे बड़ा कारण ये था
कि विश्वमोहन शुद्ध शाकाहारी आदमी था और उसे अमेरिका में भोजन को लेकर बहुत
दिक्कत महसूस होती थी। उम्र के साथ-साथ उसकी यह दिक्कत बढ़ती ही जा रही थी।
सो उन्होंने भारत लौटने का मन बनाया। विश्वमोहन भारत और अमेरिका दोनों ही
देशों में पर्याप्त संपर्क बना चुका था। उसने अमेरिका से काम लाने का जिम्मा
अपने कुछ दोस्तों पर छोड़ा और खुद भारत लौटकर एक बी.पी.ओ. कंपनी खोली जो उस
काम को एक्जीक्यूट करने वाली थी। दो वर्षों के भीतर ही उसने शहर में जमीन लेकर
एक सुंदर और भव्य ऑफिस का निर्माण कर लिया और जल्दी ही उसकी गिनती शहर के सफल
प्रोफेशनल्स में होने लगी।
वह अच्छी किताबें पढ़ता, रात दस से एक वाले शोज में तमाम चर्चित फिल्में
देखता, सफल और प्रतिष्ठित लोगों के बीच उठता बैठता और गाहे बगाहे मैरियट होटल
के लाउंज में दोस्तों के बीच वाइन के साथ डिनर करता पाया जाता। उसकी सीधे
राजनीति में रुचि नहीं थी पर वह राजनीतिक विचार रखता था और उसके अनुसार अधिकतर
पार्टियाँ विकास विरोधी झगड़ों में उलझी थीं जबकि देश को एक ऐसे नेता की जरूरत
थी जो सीधे विकास का रास्ता पकड़ सके। वह देश-विदेश के उदाहरणों से, जिनमें
उसका खुद का उदाहरण भी शामिल था, समझा सकता था कि विकास का रास्ता ही सही
रास्ता है।
जैसा कि अक्सर सफल आदमियों के साथ होता है, इलाके के सभी पार्षद और विधायक उसे
जानते थे। थानेदार आते जाते उसे नमस्ते कर जाता था, एक दो मंत्रियों से भी
उसका 'हाय-हलो-नमस्ते भाई साहब' वाला परिचय था और तमाम रसूखदार जगहों पर उसे
देखा जा सकता था।
कुल मिलाकर विश्वमोहन भारत की उस नई जमात में शामिल था जिसे भारत को चमकदार
बनाने का श्रेय जाता है।
उसकी वर्तमान समस्या ये थी कि उसके शानदार ऑफिस के पड़ोस में 'गरीबनवाज चिकन
शॉप' ने अपनी गुमटी रख ली थी जो उसकी संवेदनाओं को आहत कर रही थी।
उसने खुद को आश्वस्त करते हुए कहा -
'बेकार परेशान हो रहे हो। एक दो दिन में हटवा देना।'
फिर वह अपनी कुर्सी पर बैठ गया।
गौतम ने धीरे से कमरे में प्रवेश किया। वह गंगाधर को बाहर ही छोड़ आया था।
विश्वमोहन ने पूछा,
'हाँ गौतम, मिल आए?'
'यस सर'
'क्या बोला?'
'सर मैं सीधे उससे नहीं मिला। सोचा बात गरमा-गरमी में न बदल जाए, पहले आसपास
की दुकान वालों से बात कर लूँ, उन्हें भी तो खराब लग रहा होगा।'
'ठीक है। फिर बात की?'
'यस सर। पहले बनारसी पान वाले से बात की। उसने पूछा 'कौन सी दुकान?' फिर मैंने
उसे दिखाया तो बोला 'भैया, अपना अपना धंधा है!' फिर मैंने सांची दूध वाले से
कहा कि लोग तुम्हारे यहाँ दूध, दही और श्रीखंड लेने आते हैं, ये पड़ोस में
मुर्गा कटते देखेंगे तो क्या कहेंगे? उसने हँसते हुए कहा, 'किसको फुर्सत है
भाई साहब कुछ कहने कहाने की! सब अपने अपने काम में लगे हैं। हो सकता है कि
मुर्गा लेने आएँ तो हमसे दूध-दही भी ले जाएँ।'
'तुम्हें सीधे गरीब नवाज से बात करनी थी।'
'की थी सर।'
'क्या कहा उसने?'
'बोला, रोजी रोटी का सवाल है साहब। आप कहेंगे तो थोड़ा परदा कर लेंगे। बाकी
गुमटी तो यहीं रहेगी। फिर मैंने पूछा कि ये पंख और मुर्गियों की गरदनें और
दूसरा कचरा निकलेगा उसका क्या करोगे, तो बोला कि पास में नाली है तो, उसमें
बहा देंगे।'
'और नाली कुछ दिनों में चोक हो जाएगी, बदबू आएगी, उसका क्या होगा?'
'मैंने पूछा था सर, पर वह बोला कि अब हर बात का ठेका उसने थोड़े ही ले रखा
है।'
विश्वमोहन को अब गुस्सा आने लगा। उसने गौतम से कहा,
'अच्छा अब तुम जाओ, मैं देखता हूँ। नाम क्या है उसका?'
'रियाज। रियाज मोहम्मद।'
दोपहर में विश्वमोहन का मन काम में नहीं लगा। उसने अपने ऑफिस के बगल में
स्थापित 'गरीब नवाज चिकन शॉप' की समस्या को देश के विकास की समस्या से जोड़कर
देखा। देखिए तो, किस तरह बेतरतीब विकास हो रहा है। कहीं भी बाजार बना देते
हैं, कहीं भी शादियाँ करने लगते हैं, कहीं भी कचरा फेंकने लगते हैं, कहीं भी
गुमटियाँ रख देते हैं...
ये क्या बात हुई? आपको देखना चाहिए कि खुले में 'गरीबनवाज चिकन शॉप' न हो, कि
उसके द्वारा पैदा की गई गंदगी, मुर्गों के पंख और उनकी गरदनों को डिस्पोज ऑफ
करने की ठीक-ठीक व्यवस्था हो, कि वातावरण प्रदूषित न हो...
तभी अचानक पंख फड़फड़ाने और मुर्गे के कुड़कुड़ाने की आवाज आई। विश्वमोहन ने
अपनी खिड़की के ब्लाइंड्स हटा कर देखा। गरीब नवाज चिकन शॉप के छोकरे ने दोनों
टाँगों से एक मुर्गे को पकड़ रखा था। उसने उसकी गर्दन गुमटी के पीछे रखे पत्थर
पर रखी, मुँह में कुछ बुदबुदाया और छुरी से धीरे-धीरे उसकी गर्दन रेतने लगा।
मुर्गा कुछ देर उसके हाथ में फड़फड़ाया और फिर शांत हो गया। छोकरे ने अब उसकी
गर्दन अलग की और उसकी साफ-सफाई में लगा।
विश्वमोहन ने ब्लाइंड्स बंद कर दीं और आकर सोफे पर बैठ गया। उसने अपने कमरे
में ये बड़ी खिड़की इसलिए खुलवाई थी कि कभी-कभी जब काम से ब्रेक लेना हो तो
ब्लाइंड्स हटाकर चलती-फिरती सड़क को और उसके पीछे की हरी भरी पहाड़ी को देख
सके। पर यह दृश्य...
इस दृश्य को देखने के बाद अब न तो वह काम कर सकेगा और न ही खाना खा सकेगा।
उसने सोफे पर सिर टिकाया और आँखें बंद कर लीं।
आधी झपकी और आधी चेतना के बीच अचानक उसे अपने बचपन का, छोटे शहर वाला, घर याद
आया।
पुरानी स्टाइल की, कवेलू वाली ढलवाँ छत, दोनों तरफ बड़े कमरे और बीच में
वरांडा, वरांडे के सामने सुंदर छोटा सा बगीचा, खड़ी पट्टियों से बने गेट और
बाउंड्री और उसी गेट पर गोल फ्रेम के ऊपर चढ़ी मधुमालती की बेल, जो घर भर को
खुशबू से भर देती थी।
उनके घर से सटा हुआ था सरदार रंजीत सिंह का मकान। मकान लगभग उसके घर जैसा ही
था पर उसके दूसरी ओर कंटीली तार की बाड़ से घेरकर एक बाड़ा भी बना दिया गया
था। रंजीत सिंह जी का बेटा मंजीत सिंह उर्फ बब्बी, उसका गहरा दोस्त था। दोनों
की उम्र करीब सात-आठ साल, दोनों का स्कूल एक, दोनों के पास खेलने और घूमने के
लिए अपार समय।
मंजीत का बाड़ा दोनों के खेलने की प्रिय जगह था। वे कभी उसमें क्रिकेट जमाते,
कभी फुटबाल, कभी गुल्ली-डंडा और कभी कंचे। मंजीत का बड़ा भाई सतविंदर खुद पतंग
बना लेता था और माँजा भी सूत लेता था। सो अक्सर ठंड के समय पतंग उड़ाने का खेल
चलता। शाम होते-होते मंजीत की माँ कुलविंदर, जिसे वे दोनों 'मात्ता जी' के नाम
से पुकारते थे, प्रेम से उन्हें बुलाती और उनके हाथ में कुछ न कुछ खाने के लिए
रख देती। कभी एक पेड़ा, कभी कुछ नमकीन, कभी घी में तर हलवा, कभी काबुली चने।
फिर बड़े से स्टील के गिलास में ठंडा पानी या लस्सी। मंजीत का घर उसका प्रिय
अड्डा था।
विशेषकर इतवार के दिन, जब पूरा रंजीत सिंह परिवार सुबह से दोपहर तक नहाने का
विशेष उपक्रम करता। उस दिन पगड़ियाँ खोलकर रख दी जातीं, नहाने के बाद पुरुष
सदस्य धूप में अपने बाल सुखाते और दाढ़ी फहराते, रंजीत सिंह बिना 'फिक्सो' लगी
खुली दाढ़ी में उसे अत्यंत भव्य और शानदार नजर आते और वह अक्सर सोचता, बड़ा
होकर वह भी दाढ़ी रखेगा।
वह भी इतवार का ही दिन था। दोपहर करीब चार बजे वह मंजीत को ढूँढ़ता उसके घर
पहुँचा। मंजीत शायद बाजार गया हुआ था। उसकी माँ मंजी पर बैठी सब्जी काट रही
थी। सदा की तरह उसने पीले रंग की रेशमी कमीज और सलवार पहनी हुई थी और गले में
सफेद चुन्नी। विश्वमोहन, जिसे प्यार से वह विशू कहती थी, को देखकर बोली,
'विशू, मेरे बच्चे, आ जा। मंजीत आत्ता ही होगा। तब तक तू चाहे तो बाड़े में
खेल ले।'
'ठीक है मात्ता जी।'
उसने कहा और बाड़े में पहुँच गया। बाड़े में एक कोने में जालीदार घर में,
मुर्गियों का एक दड़बा भी था जिसमें दस-बीस मुर्गियाँ हर दम रहा करती थीं।
विशू के लिए वे खेल की वस्तु थीं। वह उन्हें इधर-उधर फुदकते हुए देखता, दाने
डालता और जब कभी वे दड़बे से बाहर आतीं तो उनके पीछे-पीछे हुर्र-हुर्र करके
दौड़ता।
उस दिन उसके पीछे-पीछे बाड़े में एक और व्यक्ति ने प्रवेश किया। वे मंजीत के
बाबा यानी 'दारजी' थे। दारजी मंजीत के घर के सबसे वरिष्ठ सदस्य थे। सफेद कमीज
सफेद सलवार और सफेद पगड़ी, खुली फहराती हुई सफेद दाढ़ी। कमर में लटकती काली
मियान और उसमें कटार। वे उसे पुराने समय के किसी योद्धा की तरह नजर आते थे।
हालाँकि वे विशू को प्यार करते थे पर वह उनसे डरता था।
जैसे ही 'दारजी' ने मुर्गियों के दड़बे में प्रवेश किया वे इधर-उधर भागने
लगीं। कुछ खुले दरवाजे में से बाहर निकल भागीं। कुछ ने उड़ने का प्रयास किया,
पर मुर्गियाँ ज्यादा कहाँ उड़ पाती हैं? दारजी ने अद्भुत फुर्ती के साथ एक
मुर्गी को पकड़ लिया हालाँकि उनके हाथ में उसका एक ही पंख आया। वह थोड़ी देर
फड़फड़ाई फिर उनके हाथ से छूटकर निकल भागी। दारजी ठहर जा, ठहर जा करते हुए
उसके पीछे-पीछे दौड़े। करीब अस्सी साल की उम्र में भी उनके शरीर में अद्भुत
फुर्ती थी। उन्होंने उसे दबोच ही लिया। फिर दोनों टाँगों से उसे उलटा लटकाते
हुए एक पत्थर के पास गए, पहले उसकी गर्दन मरोड़ी और फिर पास ही पड़ी छुरी से
एक ही वार में उसकी गर्दन धड़ से अलग कर दी। कुछ देर उसका धड़ फड़फड़ाया, फिर
छूटकर उनके हाथ से गिर गया। विशू का दिल काँप गया। उसने अपना मुँह दूसरी ओर कर
लिया। 'दारजी' अब आगे के काम में लगे।
विशू का मन अब उस घर में रहने का नहीं हुआ। वह दौड़कर अपने घर जाने लगा। तभी
मंजीत ने प्रवेश किया,
'कहाँ जा रहा है विशू। आ जा हम लोग खेलेंगे। देख मैं नई बाल लाया हूँ।'
कह कर उसने नई टेनिस बाल हवा में उछाली। पर विशू का मन आज खेलने का नहीं था।
उसने दूर से ही कहा,
'अभी जा रहा हूँ, कल खेलेंगे।'
जाते-जाते उसने देखा। 'मात्ताजी' बड़ी पतीली को गैस पर चढ़ा चुकी थीं जिसमें
पानी उबल रहा था। किचन में एक बड़ा सा छुरा तैयार रखा था और जमीन पर लकड़ी की
टिकटी।
दारजी किचन में आने ही वाले थे।
उस दिन के बाद विशू का मंजीत के घर आना-जाना कम हो गया। अगर 'मात्ताजी' उसे
प्रेम से हलवा भी खाने को देतीं तो उनके हाथ से, उसे वह भी लेने का मन नहीं
करता। 'मात्ताजी' पूछतीं,
'क्या बात है विशू, तेरी मंजीत से कुछ लड़ाई-वड़ाई हुई है क्या? तू मुझे कुछ
नाराज दिखता है। आजकल ज्यादा आता भी नहीं।'
'नहीं मात्ताजी, ऐसी कोई बात नहीं।'
'तो ले, ये हलवा खा ले।'
वह बेमन से हलवा ले लेता। फिर धीरे से बाहर जाकर किसी कोने में गिरा देता।
मंजीत के परिवार से वह धीरे-धीरे दूर होता गया, हालाँकि मंजीत से उसकी दोस्ती
बनी रही।
जब मंजीत शहर छोड़कर गया तो वह उसे बस स्टैंड तक छोड़ने गया था और उसके गले
लगकर खूब-खूब रोया था।
विश्वमोहन की तंद्रा टूटी।
बाहर कुछ बूँदाबाँदी शुरू हो गई थी।
वह एक बार फिर उठा, इस बार उसने खिड़की के ब्लाइंड्स पूरी तरह खोल दिए। सुंदर
हरी भरी पहाड़ी से होते हुए उसकी नजरें एक बार फिर गरीब नवाज चिकन शॉप पर आकर
टिक गईं। दुकान पर एक साँवली, सलोनी, सुंदर सी महिला खड़ी थी जो शायद दूध और
श्रीखंड खरीदने के बाद चिकन खरीद रही थी। उसने माथे पर गोल बिंदी लगा रखी थी
और वह गुमटी वाले लड़के से हँस-हँस कर बातें कर रही थी।
अब घर जाकर वह इस चिकन के छोटे छोटे टुकड़े करेगी। फिर मसाले डालकर उसे
पकाएगी। रात में उसे रोटियों के साथ टेबल पर सर्व करेगी। फिर अपने पति के साथ
प्रेम करेगी। इस अभी-अभी चिकन खाने वाली महिला के साथ भी प्रेम किया जाएगा,
बिना इस कंसीडरेशन के कि इसने अभी-अभी चिकन बनाया और खाया है। इसमें कहीं भी
कुछ गलत नहीं था पर पता नहीं क्यों विश्वमोहन को यह विचार अच्छा नहीं लगा।
टेलीविजन और फिल्मों में हल्के रंग की शिफॉन में लिपटी, सुंदर, दमकती लुनाई
वाली महिलाओं को देखकर, जो अक्सर बहुत ही साफिस्टिकेटेड स्टाइल में काँटे से
चिकन या मीट का टुकड़ा उठाकर मुँह में डालती थीं, विश्वमोहन के मन में अक्सर
ये विचार आता कि उनसे पूछे,
'ये चीज जो आप खा रही हैं इसे आपने कटते हुए देखा है?'
'जी नहीं।'
'तो देखिए।'
उसे पूरा भरोसा था कि उसके जवाब पर वे उसे एक बेहूदा आदमी मान लेंगी, वैसे ही
जैसे दक्षिण भारत के फिल्मकार वैद्यनाथन को कई लोग मानते हैं, जिन्होंने अपनी
फिल्म में दर्शकों को उन बूचड़खानों की सैर कराई थी जहाँ असंख्य बकरे, गायें
और भैंसे काटे जा रहे थे, डिब्बे में बंद किए जा रहे थे और विश्व भर में भेजे
जा रहे थे, शायद उन दमकती लुनाई वाली महिलाओं और उनसे लिपटे शानदार सूट्स वाले
पुरुषों का भोजन बनने के लिए। वैद्यनाथन की फिल्म को देखकर कई लोगों ने
मांसाहार छोड़ दिया था।
विश्वमोहन ने अपनी खिड़की की ब्लाइंड्स बंद कीं और बाहर निकल आया।
उसने गौतम से कहा,
'आज मैं जरा जल्दी जाऊँगा, तुम ऑफिस देख लेना।'
'यस सर।'
ऑफिस से विश्वमोहन ने सीधे अपने इलाके के पुलिस स्टेशन का रास्ता पकड़ा।
थानेदार अशोक पटेल से उसकी जान पहचान थी। उसे देखकर वह कुर्सी से खड़ा हो गया।
हाथ बढ़ाता हुआ बोला,
'अरे मोहन जी, आप यहाँ थाने में कैसे?'
'आपसे थोड़ा काम था।'
'काम-वाम तो होते रहेंगे, आप बैठिए।'
विश्वमोहन थोड़ा आश्वस्त हुआ। पटेल ने आवाज लगाकर दो गिलास चाय बुलाई।
विश्वमोहन के हाथ में एक गिलास पकड़ाते हुए बोला,
'जी, अब बताइए।'
'बात ये है कि मेरे ऑफिस के बगल में रियाज नाम के आदमी ने एक गुमटी रख ली है
और उसमें 'गरीब नवाज चिकन शॉप' के नाम से एक दुकान चला रहा है। वहीं खुले में
मुर्गे काटे जाते हैं, बनाए जाते हैं, बेचे जाते हैं। गंदगी कर रहे हैं वह अलग
से। मैं चाहता हूँ कि आप उसे वहाँ से हटवाएँ।'
'अच्छा? ये तो सरासर गलत बात है। पहली बात तो उसके पास नगर निगम का लाइसेंस
होना चाहिए। फिर खुले में यह काम वह कैसे कर सकता है? आप फिकर मत कीजिए। मैं
कल सुबह ही दो सिपाहियों को भेजता हूँ। और बताइए।'
'बस इतना ही था। मेरे कमरे के नीचे ही उसकी दुकान है। दिन भर चिक चिक लगी रहती
है। मैं परेशान हो गया हूँ।'
'अब कल के बाद आप परेशान नहीं होंगे।'
अशोक पटेल ने कहा और विश्वमोहन को बाहर तक छोड़ने आया। चलते चलते विश्वमोहन ने
अपनी कार से सिगरेट का एक पैकेट निकाला और पटेल से कहा,
'इसे ट्राय कीजिएगा। इंपोर्टेड है और फ्लेवर्ड भी। अच्छा चलता हूँ। थैंक यू सो
मच।'
'थैंक यू क्या मोहन जी, ये तो हमारा काम है।'
एक संतोष के साथ विश्वमोहन ने ड्रायवर कैलाश से कहा,
'चलो कैलाश, घर चलो।'
अगले दिन सुबह जब वह अपने ऑफिस पहुँचा तो 'गरीब नवाज चिकन शॉप' बंद पड़ी थी। न
मुर्गियों की जाली थी, न उन्हें काटने वाला छोकरा। बस रियाज गुमटी के पास खड़ा
था।
गंगाधर ने बताया -
'दो पुलिस वाले आए थे। इसे बंद करा गए हैं।'
विश्वमोहन को अजब संतोष का अहसास हुआ। लगा उसकी भी कुछ हस्ती है। आखिर इन
लोगों ने समझ क्या रखा है? जो मन में आया वो करेंगे? किसी का भी कोई लिहाज
नहीं करेंगे? आखिर सिविल सोसायटी भी कोई चीज है। उसने सोचा ऊपर जाकर इंसपेक्टर
अशोक पटेल को फोन कर धन्यवाद दे। फिर सोचा, पहले एक पान खा लेता हूँ। असल में
आज उसे विजयी मुद्रा में थोड़ी देर वहाँ खड़े रहने की इच्छा हो रही थी। पान
खाना तो सिर्फ एक बहाना था।
पान खाते हुए उसने कनखियों से रियाज की ओर देखा। वह उसी की ओर देख रहा था।
विश्वमोहन ने पहले तो उसे नजरअंदाज किया। फिर एक उचटती सी निगाह उसकी ओर डाली
और ऊपर अपने ऑफिस में चला आया।
रियाज उसी की ओर देख रहा था। क्या उसकी निगाह में एक किस्म की चुनौती थी?
उस शाम विश्वमोहन ने अपने दो तीन दोस्तों को होटल मैरियट के लाउंज में बुलाया।
वाइन की चुस्कियों और बेहतरीन स्नैक्स के बीच उसने उन्हें पूरी घटना सुनाई
जिसका अंत कुछ इस तरह हुआ,
'असल में क्या है कि हम किसी चीज का, किसी बुराई का, किसी अव्यवस्था का विरोध
ही नहीं करते। अगर हम विरोध करें तो चीजों को बदला जा सकता है।'
विश्वमोहन के गहरे दोस्त सुरेंद्र सिंह ने, जिसे चिकन टिक्का और बटर चिकन बहुत
पसंद था, कहा,
'सवाल ये है कि आप चिकन शॉप का विरोध करना ही क्यों चाहते हैं? मुझे तो आपका
ये शाकाहार-वाकाहार बेकार की चोंचलेबाजी लगता है।'
वाइन के दो पेग हो चुके थे और विश्वमोहन ने आज सुबह-सुबह एक बड़ी जीत हासिल की
थी। आज वह बहस करने के मूड में था। उसने कहा,
'ये कोई चोंचलेबाजी नहीं है। हमारे देश में ही नहीं यूरोप और अमेरिका में भी
वेजीटेरियनिज्म एक आंदोलन के रूप में खड़ा हुआ है। वहाँ भी लाखों लोग हैं जो
मांसाहार का विरोध करते हैं। बाकायदा वेजीटेरियन सोसायटीज बनी हुई हैं। हमारे
अपने देश में तो पचास परसेंट से ऊपर लोग शाकाहारी हैं।'
'छोड़ो यार, ये सिर्फ जैनियों और आप जैसे कुछ हिंदुओं का धार्मिक प्रोपैगंडा
है। क्या आप बताएँगे कि इस बारे में क्रिश्चियन मान्यता क्या कहती है?'
विश्वमोहन अमेरिका में खुद एक वेजीटेरियन सोसायटी का सदस्य रह चुका था। इस
मामले में कोई उसे परास्त नहीं कर सकता था। उसने कहा,
'तुमने पायथागोरस का नाम सुना है?'
'कौन वही, गणित वाला?'
'हाँ वही, महान गणितज्ञ। उसने आज से दो हजार साल पहले यूरोप में शाकाहार का
प्रचार किया था। वह इसे सात्विक जीवन का एक जरूरी मूल्य मानता था। पायथागोरियन
शुद्ध शाकाहारी होते थे और इसके लिए उन्हें चर्च ने बहुत प्रताड़ित भी किया। एक
समय में तो उन्हें विधर्मी तक मान लिया गया और जिंदा जला दिया गया। पर
धीरे-धीरे, सैकड़ों सालों में, उनकी बात लोगों को समझ में आने लगी। इरासमस,
मोंटेन और दा विंशी जैसे महान लोगों ने उनका समर्थन किया। आज क्रिश्चियनिटी के
भीतर भी बड़े समूह हैं जो मांसाहार को गैर जरूरी मानते हैं।'
विश्वमोहन के दूसरे दोस्त सतिंदर सिंह ने जो खेल की दुनिया से आता था और
बाक्सिंग का चैंपियन होने के साथ-साथ मीट का बड़ा शौकीन था कहा,
'यार, बॉडी शाडी बनाने के लिए तो मीट बहुत जरूरी है। उसके बिना आदमी के शरीर
में ताकत कहाँ से आएगी?'
फिर वह आँख मारकर हँसा। विश्वमोहन ने कहा,
'ये भी गलत धारणा है। विज्ञान सिद्ध कर चुका है कि मीट के बहुत ही छोटे हिस्से
से न्यूट्रीएंट आदमी के शरीर में पहुँचते हैं। हाँ 'मैड काउ डिजीज' जैसी
बीमारियाँ जरूर हो सकती हैं।'
सतिंदर ने फिर कहा,
'जानवर तो जानवर ही होता है। सदियों से उसका शिकार किया जा रहा है।'
विश्वमोहन ने गंभीर होते हुए कहा,
'पर इसका मतलब ये तो नहीं कि आज के युग में भी उस पर उतने ही जुल्म ढाए जाएँ।
एक समय था जब यूरोप में मुर्गियों का गला रेतकर उन्हें उल्टा टाँग दिया जाता
था कि पूरा खून बह जाए तो उनकी साफ सफाई की जाए। या गठानों वाली रस्सियों से
सुअरों को तब तक पीटा जाता था जब तक कि वे मर न जाएँ, सिर्फ इसलिए कि उनका
माँस पिलपिला और स्वादिष्ट हो सके। सोचो, आज जब विज्ञान हमें बता चुका है कि
जानवरों में भी नर्व सिस्टम उसी तरह का होता है जैसा मनुष्यों में और उन्हें
भी वैसा ही दर्द होता है जैसा आदमियों को, तो क्या आज भी वैसा ही किया जाना
चाहिए? मुझे तो लगता है कि मांसाहार आदमी को ब्रूटलाइज करता है, बर्बर बनाता
है।'
सतिंदर अभी भी अड़ा हुआ था,
'अच्छा मान लो कि पूरी दुनिया में लोग चिकन, मीट या फिश वगैरह खाना छोड़ दें
तो क्या दुनिया में भोजन की कमी नहीं पड़ जाएगी?'
'बिल्कुल नहीं। उल्टे अगर आर्गनाइज्ड एनीमल फार्मिंग बंद कर दी जाए तो इतना
अनाज बचेगा कि पूरी दुनिया का पेट आसानी से भर सके। हम बर्बरता से भी बच
सकेंगे और शायद युद्ध पिपासा से भी।'
फिर वह साँस लेने के लिए रुका और जैसे अपने तर्क को मजबूत करते हुए उसने कहा,
'ये सिर्फ मैं ही नहीं कह रहा हूँ, गांधी ने भी यही कहा था।'
अनिरुद्ध ने, जो कविता लिखा करता था, और अक्सर इस तरह की पार्टियों में चुप
रहता था, वातावरण को हल्का करते हुए कहा,
'अच्छा चलो। आज तुम्हारी बात मान लेते हैं। आज हम लोग पनीर टिक्का और चना
रोस्ट से ही काम चला लेंगे।'
कहते हुए उसने सबके गिलास एक बार फिर भरे, वेटर को चना रोस्ट लाने का आर्डर
दिया और एक सिगरेट सुलगा ली। उसके बाद बातचीत हाल ही में आई एक फिल्म की ओर
चली गई और तब तक चलती रही जब तक कि लाउंज की लाइट्स के बंद होने का समय नहीं आ
गया।
अगले कुछ दिनों तक विश्वमोहन का ऑफिस वैसा ही चला जैसा वह चाहता था। शांत और
सुव्यवस्थित। उसने बचे हुए सारे काम निबटाए और एक दो दिन के लिए छुट्टी लेने
का सोचने लगा।
पर अचानक एक दिन सुबह उसे अपने एक्सटेंशन पर दीपा घोष की मीठी आवाज सुनाई दी,
'सर वन मिस्टर हमीद खान इज हियर। ही वांट्स टू मीट यू।'
'पर मैं किसी हमीद खान को नहीं जानता। पूछो काम क्या है?'
'सर, वो कह रहे हैं कि वे यहाँ के पार्षद हैं। आपसे मिलकर ही काम बताएँगे।'
'अच्छा भेज दो, और देखो गौतम को भी भेज देना और दो कप चाय भी।'
हमीद खान और गौतम ने साथ-साथ प्रवेश किया। विश्वमोहन ने औपचारिकता में हाथ
बढ़ाते हुए कहा -
'आइए, बैठिए।'
हमीद खान ने बैठते हुए कहा -
'मोहन जी आपसे एक काम है।'
'बताएँ।'
'आप रियाज के खिलाफ अपनी शिकायत वापस ले लें।'
'देखिए मैंने शिकायत वापस लेने के लिए नहीं की है। मुझे लगता है कि गरीब नवाज
चिकन शॉप वाकई एक पब्लिक न्यूसेंस है। इसे यहाँ नहीं होना चाहिए।'
'पर एक गरीब आदमी उससे अपनी रोजी रोटी कमा रहा है।'
'मेरी उसकी रोजी रोटी से कोई दुश्मनी नहीं। बस वह अपनी गुमटी यहाँ से हटा ले।'
'और वो टोपी वालों ने जो चाय का ठेला लगवा दिया है, उसके बारे में आपका क्या
कहना है?'
'कौन सा ठेला?'
'जरा उठकर देखिए!'
विश्वमोहन ने खिड़की के ब्लाइंड्स हटाकर देखा। गुमटी के ठीक बगल में एक चाय का
ठेला खड़ा था। ठेले पर रखे छोटे स्टोव पर एक साँवला सा आदमी चाय उबाल रहा था।
नीचे जमीन पर, एक थोड़े बड़े स्टोव पर, एक औरत समोसे तल रही थी। ग्राहक भी
उसके आसपास जमा होना शुरू हो गए थे।
'उनके बारे में आप क्या कहते हैं?'
विश्वमोहन थोड़ा अचकचा गया। उसे एकदम कोई जवाब नहीं सूझा। हमीद भाई ने कहा,
'उनके बारे में आप क्यों कहेंगे? आखिर वे सब आपके लोग हैं।'
'वे कोई मेरे लोग-वोग नहीं हैं। मैं उनकी भी शिकायत करूँगा। उन्हें भी हटवाने
की कोशिश करूँगा। ऐसे तो यहाँ पूरा बाजार लग जाएगा।'
'देखते हैं। आप क्या करते हैं? मेरी गुजारिश है कि आप रियाज के खिलाफ शिकायत
वापस लीजिए। नहीं तो आप बड़ी मुसीबत में फँस सकते हैं। फिर मत कहिएगा कि मैंने
चेतावनी नहीं दी थी।'
'आप मुझे धमका रहे हैं?'
'नहीं। समझा रहा हूँ।'
'ठीक है। तो मैं भी आपको बता दूँ - मैं शिकायत वापस नहीं ले रहा हूँ।'
हमीद मियाँ उठे और बाहर चले गए।
उनके जाने के बाद गौतम ने कहा,
'सर, हमें एक बार सोच लेना चाहिए।'
'क्यों?'
'सर मेरी सूचना है कि रियाज मुन्ने भाई के पास गया था। उन्होंने ही हमीद खान
को हमारे पास भेजा है।'
मुन्ने भाई इलाके के बड़े दादा थे। अड़ी डालना, घर खाली करवाना, लोगों के
झगड़े सुलझाना और इस तरह पैसे बनाना उनका प्रमुख काम था। अब जमीन के धंधे में
भी आ गए थे। बड़ी जमीनें खुद ही खरीदते बेचते थे और उलझी हुई जमीनों पर कब्जा
भी दिलवाते थे। गौतम को मालूम था कि रियाज जब उनके यहाँ विश्वमोहन की शिकायत
लेकर गया तो उन्होंने कहा था... अरे उसकी तो माँ की... मैं कल ही हमीद को
भेजता हूँ। समझ गया तो ठीक, नहीं तो अपन देख लेंगे। पर ये बात उसने विश्वमोहन
को नहीं बताई। उसने यही कहा,
'सर इनसे उलझना ठीक नहीं। पता नहीं, कब क्या कर डालें। इससे तो अच्छा है कि
मैं आपका कमरा बदलवा देता हूँ। न आपको ये चिकन शॉप दिखेगी न तकलीफ होगी और हम
इस झंझट से भी बच जाएँगे।'
विश्वमोहन को ये गवारा न हुआ। वह कोई गलत काम तो कर नहीं रहा था। ऐसे तो कोई
भी हमीद खान या मुन्ने भाई आकर उसे धमका जाएँगे और वह हार मान लेगा? आखिर शहर
में उसकी भी कोई हैसियत है। अभी तो सिर्फ पुलिस स्टेशन तक गया था, बात बढ़ेगी
तो एस.पी. या डी.आई.जी. तक जाएगा। डी.आई.जी. उसका कॉलेज का दोस्त है और अक्सर
शाम को मैरियट में मिल जाता है। उसने गौतम से कहा -
'तुम मत घबराओ। कुछ नहीं होगा।'
अभी गौतम कमरे के बाहर निकला ही था कि चार-पाँच लोग खाकी पैंट, सफेद कमीज और
काली टोपी पहने विश्वमोहन के कमरे में आ गए। उनके साथ-साथ गौतम भी दुबारा कमरे
में आ गया। वह उनमें से एक को पहचानता था। उन्हें देखकर उसने कहा,
'अरे रत्नाकरजी आप! आप सर के कमरे में कैसे?'
रत्नाकर जी ने विश्वमोहन से मुखातिब होते हुए कहा -
'मोहन जी हम लोग तो आपको बधाई देने आए हैं। आपने रियाज के खिलाफ ठीक शिकायत
की। मुहल्ले के बीचों बीच इस तरह की दुकानें बिल्कुल नहीं चलनी चाहिए।'
'जी।'
'आप डटे रहिए। कोई कुछ भी कहे, चिंता मत करिए और कोई दिक्कत हो तो हमें
बताइएगा। आखिर हम लोग कब काम आएँगे?'
'जी, अभी तो ऐसी कोई दिक्कत नहीं है।'
'बढ़िया है। आखिर आप भी कोई छोटे मोटे आदमी तो हैं नहीं। हाँ एक बात और, ये
नारायण का जरा ध्यान रखिएगा। अपना बच्चा है।'
'नारायण कौन?'
'वही जो आपके ऑफिस के नीचे चाय का ठेला लगाता है। हम लोगों ने इसकी मदद की है।
कुछ काम धंधे से लग जाएगा।'
'पर रत्नाकर जी मुझे इस चाय के ठेले पर भी एतराज है।'
'छोड़िए मोहन जी, आप कहाँ-कहाँ एतराज करेंगे। हम लोग तो आपको बधाई देने आए थे।
कोई जरूरत पड़े तो बताइएगा।'
कहकर वे चले गए। गौतम ने कहा,
'सर, मैंने आपसे कहा था। बात बढ़ती जा रही है। आप एक बार फिर सोच लें।'
विश्वमोहन के समझ में नहीं आया कि उसे क्या करना चाहिए। उसके सोच का आधार
व्यवस्थित विकास की अवधारणा थी, जो एक सभ्य नागरिक के रूप में, एक वैश्विक
नागरिक के रूप में उसके भीतर विकसित हुई थी। न वह हमीद खान के पक्ष में था न
रत्नाकर भाई के। दोनों ही नाम रोजी रोटी का ले रहे थे पर सरकारी जमीन पर आदमी
अपने बिठा रहे थे। उसने तय किया, वह दोनों का विरोध करेगा। कल एक बार फिर
इंसपेक्टर अशोक पटेल से मिलने जाएगा। कहेगा, इस ठेले वाले को भी यहाँ से हटाना
चाहिए।
पर अगले दिन उसे अशोक पटेल के यहाँ थाने में जाने की जरूरत नहीं पड़ी।
अभी वह अपने ऑफिस पहुँचा ही था कि दीपा घोष की आवाज उसके एक्सटेंशन पर सुनाई
पड़ी।
'सर, इंस्पेक्टर साहब आए हैं।'
विश्वमोहन को आश्चर्य हुआ। वह तो खुद ही आज पटेल से मिलने जाने वाला था। वह
कैसे आ गया? शायद स्पाट का निरीक्षण करने आ गया होगा। चलो देखते हैं। यहीं बात
कर लेंगे।
अशोक पटेल ने कमरे में प्रवेश किया, आज उसकी मुद्रा थोड़ी गंभीर थी। विश्वमोहन
ने उसका स्वागत करते हुए कहा,
'आइए पटेल साहब। आज आपने यहाँ आने की जहमत कैसे उठाई? फोन पर बात कर लेते।'
'नहीं मोहन जी, बात ही कुछ ऐसी है। फोन पर नहीं हो सकती थी।'
घोष मैडम आकर काफी और बिस्किट रखवा गईं। विश्वमोहन ने पूछा -
'क्यों, ऐसी क्या बात है?'
'असल में आपके नाम से कोर्ट का सम्मन आया है।'
'मेरे नाम से? क्यों?'
'यह तो आपको जज साहब ही बताएँगे। कुछ लड़ाई झगड़े का केस है।'
'पर मैंने तो किसी से लड़ाई झगड़ा नहीं किया'
'मोहन जी सम्मन तो यही कहता है। कल आपकी पेशी है। आप सम्मन रिसीव करवा लें।'
'सम्मन तो मैं ले लेता हूँ। पर पेशी पर किसी को भेजने से काम नहीं चलेगा?'
'नहीं। पर्सनल अपियरेंस के लिए लिखा है। मेरा सुझाव है कि आप एक वकील कर लें
और उसे साथ लेकर जाएँ। वह जज साहब का मूड देखकर बात कर लेगा।'
'मैं कलेक्टर साहब से बात करूँ?'
'कोई फायदा नहीं होगा। क्रिमिनल केस है आपको जाना तो पड़ेगा। नहीं तो मेरे पास
आदेश आ जाएँगे।'
'आदेश?'
'जी। आपको अरेस्ट करने के आदेश।'
अब विश्वमोहन की समझ में आया। वह किसी बड़ी परेशानी में फँस चुका था। उसने
कहा-
'ठीक है, तो कल चला जाऊँगा।'
'हाँ और वकील को साथ ले जाना न भूलिएगा।'
अशोक पटेल ने कहा और उठ गया।
काफी ठंडी हो चुकी थी। आज अशोक पटेल ने उसकी ओर कोई ध्यान नहीं दिया।
विश्वमोहन ने अपने दोस्त सरफराज खान को, जो शहर का एक लोकप्रिय एडवोकेट भी था,
फोन लगाया।
'सरफराज यार, मेरे ऑफिस में आओ। एक झंझट में फँस गया हूँ। तुम्हारी मदद की
जरूरत है।'
सरफराज जो 'हैप्पी गो लकी' किस्म के आदमी थे, ने उधर से कहा -
'सब मर्ज की एक दवा - सरफराज खान। आधे घंटे में हाजिर होता हूँ हुजूर।'
सरफराज खान आए और पूरी बात सुनकर बोले -
'आपसे कहा किसने था कि दूसरों के फटे में टाँग अड़ाओ!'
'किसी ने नहीं। पर यार ये भी तो गलत है कि आप पब्लिक प्लेस में खड़े होकर
मुर्गा काटने लगें।'
'जनाब आप एक दुकान की बात कर रहे हैं? लोग बड़ी बड़ी बिल्डिंगें तान ले रहे
हैं। जमीनें हड़प ले रहे हैं। रास्ते और नदियाँ रोक ले रहे हैं। उन्हें कोई
नहीं देख रहा। आप एक मुर्गी वाले की जान लिए जा रहे हैं।'
'जान तो वह मेरी ले रहा है। तुम कुछ भी कहो। अगर मेरे घर या ऑफिस के बगल में
कोई दिन रात मुर्गी काटे और बेचे तो मुझसे तो बर्दाश्त नहीं होगा। मैं क्या,
कोई भी संवेदनशील आदमी बर्दाश्त नहीं करेगा।'
'तो आप जैसे संवेदनशील आदमियों को शहर में नहीं रहना चाहिए। धीरे-धीरे हमारे
शहर ऐसे ही होते जाएँगे। और जनाब एक बात आप और जान लें, हमारा देश अभी संपन्न
नहीं हुआ है और जब तक वह संपन्न नहीं होता, रोजी-रोटी यहाँ का सबसे बड़ा
मुद्दा है। बाकी सब मुद्दों से ऊपर।'
विश्वमोहन कुछ नहीं बोला। सरफराज ने चलते चलते कहा -
'अब कल सुबह अदालत पहुँचिए। मैं आपको वहीं मिलूँगा।'
विश्वमोहन ठीक ग्यारह बजे अदालत पहुँच गया।
वह वक्त का पाबंद था। सरफराज का कहीं पता नहीं था।
अदालत में काले कोट वाले वकील फाइलों के पुलिंदे लिए, व्यस्त आदमियों की तरह
इधर से उधर आ-जा रहे थे। उनके पीछे-पीछे उनके क्लायंट, कुछ एनीमेटेड सी चर्चा
करते हुए। विश्वमोहन को लगा, वकील उतने व्यस्त हैं नहीं जितना दिखने की कोशिश
कर रहे हैं। न्यायालय आदमियों से भरा हुआ था जिसमें शहरी भी थे और ग्रामीण भी।
एक कोने में सैकड़ों नोटरी अपनी टाइपिंग मशीन लिए बैठे थे और तेज गति से, न
जाने क्या, टाइप किए जा रहे थे। इतना आदमी रोज न्यायालय आता है? और इतने लोग
आपस में लड़ रहे हैं? कोई आश्चर्य नहीं कि देश के न्यायालयों में करोड़ों
मुकदमे लंबित पड़े थे और लोग थे कि लड़े जा रहे थे, लड़े जा रहे थे...
किसी ने पीछे से उसके कंधे पर हाथ रखा,
'आ गए आप!'
सरफराज था। विश्वमोहन ने झुँझलाते हुए कहा -
'कहाँ थे यार, यहाँ तो कुछ समझ नहीं आ रहा है।'
'अरे अभी कहाँ आपकी पेशी हुई जा रही है। आइए देखते हैं।'
कहकर वह उसे प्रथम श्रेणी न्यायालय क्रमांक तीन में ले गया। सम्मन वहीं से आया
था। एक ऊँचे से प्लेटफार्म पर जज साहब बैठे थे। बाहर एक चोबदार आवाज लगा रहा
था। वकील आगे बढ़-बढ़कर कुछ कागज प्रस्तुत करते थे या बहस करते थे। नीचे बैठा
एक क्लर्क जज साहब द्वारा दिए निर्णय लिखता जाता था। अदालत के प्रवेश द्वार पर
एक दूसरा क्लर्क बैठा था जिसकी टेबल की दराज खुली हुई थी और वह वकीलों से
सरेआम रुपये लेकर उसमें डालता जा रहा था।
सरफराज ने उसे एक सौ का नोट दिया। उसने सरफराज और विश्वमोहन को सरसरी निगाह से
देखा -
'अभी टाइम है'
'कितना?'
'लंच के बाद नंबर लगेगा।'
'थोड़ा जल्दी करवाओ न'
'देखते हैं'
सरफराज ने विश्वमोहन का हाथ पकड़ कर कहा,
'चलो, चाय पीकर आते हैं'
चाय पीने में उन्होंने करीब एक घंटा गुजारा। इस बीच सरफराज ने करीब सौ लोगों
को सलाम किया और दो सौ लोगों से हाथ मिलाए। उसके पास अनंत समय था। उसे कहीं
जाने की चिंता नहीं थी। उसी समय पुलिस की वैन से करीब बीस कैदी हथकिड़यों में
लाए गए। वे पुलिस वालों से हँसी मजाक कर रहे थे। उनके चेहरे पर किसी तरह की
शिकन नहीं थी। विश्वमोहन को लगातार लगता रहा कि कोई उसे वहाँ न देख ले और पूछ
बैठे - आप यहाँ कैसे?
एक डेढ़ घंटे बाद जब वे फिर प्रथम श्रेणी न्यायालय क्रमांक तीन में पहुँचे तो
जज साहब कुछ कम घिरे नजर आ रहे थे। क्लर्क ने, जिसे अभी अभी सरफराज ने सौ का
नोट दिया था, कहा -
'साहब, लंच के लिए उठने ही वाले हैं। आपकी केस फाइल पहुँचाता हूँ।'
जज साहब ने फाइल देखकर कहा -
'बुलाओ।'
चोबदार ने कहा -
'विश्वमोहन...'
विश्वमोहन और सरफराज आगे बढ़े। जज ने विश्वमोहन की तरफ देखकर कहा -
'आप ही विश्वमोहन हैं?'
'जी।'
'देखने में तो आप शरीफ आदमी लगते हैं।'
'जी?'
'रियाज मोहम्मद की दुकान में आप क्या करने गए थे?'
'जी मैं उसकी दुकान में नहीं गया।'
'उसने शिकायत की है कि आप उसकी दुकान में गए, उसे धमकाया, मारने की धमकी दी और
फिर आठ दस लोगों को उसे पीटने के लिए भेजा।'
'जी मैंने ऐसा कुछ नहीं किया।'
अचानक विश्वमोहन को रियाज दिखा। वह थोड़ी दूर पर खड़ा मुस्कुरा रहा था। एक
कुटिल मुस्कुराहट। जज ने कहा,
'आप जानते हैं कि आपकी इस हरकत से दंगा हो सकता था? लॉ एंड आर्डर की स्थिति
बिगड़ सकती थी? इलाके के थानेदार ने भी इसकी पुष्टि की है।'
दंगा? विश्वमोहन के कटु आलोचक भी उसकी धर्म निरपेक्षता पर शक नहीं कर सकते थे।
वह खुले विचारों का आदमी था और धर्म आधारित राजनीति को विकास की राह में रोड़ा
समझता था। और अशोक पटेल? वह तो उसे अच्छी तरह जानता था। उसी ने दुकान बंद
करवाई थी। अब अदालत में उसने किस चीज की पुष्टि कर दी? उसने प्रतिवाद करने की
कोशिश की,
'सर, मैंने अपने जीवन में किसी को एक थप्पड़ तक नहीं मारा, मैं क्या दंगा
करवाऊँगा...'
जज ने कहा,
'ध्यान रखिए, आप अदालत से बात कर रहे हैं...'
सरफराज ने धीरे से उसका हाथ दबाया। वह चुप रहने का इशारा था। उसने जज से पूछा
-
'सर, कुछ मुचलका वगैरह जमा करना पड़ेगा?'
'नहीं, फिलहाल तो मैं एक वार्निंग देकर छोड़ रहा हूँ अगली बार फिर ऐसी हरकत
हुई तो मुझे कड़ी कार्रवाई करनी पड़ेगी।'
'जी सर।'
विश्वमोहन और सरफराज अदालत से बाहर आ गए।
उनके पीछे पीछे रियाज। दोनों हाथ पैंट की जेब में डाले और शर्ट की तीन बटन
खोले, लापरवाह अंदाज में चलता हुआ...
अगले दो तीन दिन विश्वमोहन अपने ऑफिस नहीं गया। वह गहरे पराजय बोध में डूब गया
था। उसे, विश्वमोहन को, जो शहर का एक सम्मानित और प्रतिष्ठित आदमी था, जो
राजनीति, कला संस्कृति और शाकाहार के बारे में भव्य और सुलझे हुए विचार रखता
था, जो विश्व भर में घूम चुका था और शायद देश की अर्थव्यवस्था में जरूरी
योगदान कर रहा था, एक अदना सा मुर्गी वाला, कोर्ट में घसीट सकता था, जलील कर
सकता था, भले ही वह सही बात कह रहा हो। और अभी चाय वाले से तो वह टकराया ही
नहीं था। और उनके पीछे थे कोई हमीद भाई, कोई मुन्ने मियाँ, कोई रत्नाकर जी।
आखिर ये लोग किस तरह के शहर, गाँव, देश चाहते हैं... उसे अचानक अपने सुंदर
ऑफिस, अपने शहर, अपने देश, विकास की अपनी अवधारणा से चिढ़ होने लगी।
फिर जब एक दिन सुबह उसकी पत्नी भारती ने अपने सुंदर और सुरम्य घर की बालकनी
में बैठकर नाश्ता करते हुए उससे कहा - 'ऐसे ऑफिस जाना थोड़े छोड़ दोगे,
तुम्हारा ऑफिस तो बढ़िया है, एक बार उसमें प्रवेश कर गए तो फिर तुम्हें बाहर की
क्या चिंता? चाहो तो अपना कमरा बदल लो। फिर अभी स्थानीय न्यायालय में ही तो
बात हुई है, लड़ाई आगे भी लड़ी जा सकती है,' तो उसकी बात से विश्वमोहन का मन
कुछ शांत हुआ।
वह अगले दिन अपनी चमचमाती मर्सिडीज में बैठकर अपने ऑफिस पहुँचा।
कार से उतरते ही उसकी निगाह 'गरीब नवाज चिकन शॉप' पर पड़ी। आज वहाँ ज्यादा चहल
पहल थी। ग्राहकों की आवाजाही और चिकन की बिक्री उठान पर थी।
और एक नई बात भी थी। दुकान की खिड़की के बाईं ओर, अपने आंतरिक अंग प्रदर्शित
करता हुआ, एक बकरा भी उल्टा लटक रहा था, जिसका पेट बीच से चिरा हुआ था। दुकान
के ऊपर नया बोर्ड लगा था - गरीब नवाज चिकन एंड मीट शॉप। यहाँ बकरे का ताजा
गोश्त भी मिलता है।
उसके ठीक पीछे नारायण चाय वाले ने दो बाँसों पर तिरपाल डालकर थोड़ी और जगह घेर
ली थी। सामने लटकते बैनर ने विश्वमोहन को सूचित किया 'नारायण भोजनालय, तीस
रुपये में वैष्णव थाली।'
रियाज सामने ही खड़ा था। विश्वमोहन ने एक बार घूर कर रियाज की ओर देखा। आज
रियाज ने भी भरपूर निगाहों से विश्वमोहन को जवाब दिया। विश्वमोहन की आँखों में
वितृष्णा थी और रियाज की आँखों में बेपरवाही।
विश्वमोहन को लगा कि वह रियाज से कुछ कहे। पर उसे अपने वकील दोस्त सरफराज और
अदालत के गरीब नवाज जज साहब की याद आ गई। उसने कुछ नहीं कहा।
उसने अभी अभी भारतीय लोकतंत्र का एक बड़ा पाठ पढ़ा था।
शहर में अभी-अभी एक दंगा होते होते बचा था।